पूज्य श्रुतसंवेगी महाश्रमण श्री १०८ आदित्यसागर जी मुनिराज का जीवन परिचय

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प्रारंभिक जीवन और शिक्षा

भारतभूमि सदा से ऋषियों, मुनियों और महापुरुषों की तपोभूमि रही है। इसी पावन धरती ने २४ मई १९८६ को मध्यप्रदेश की संस्कारधानी जबलपुर में एक ऐसे दिव्य बालक को जन्म दिया, जो आगे चलकर असंख्य आत्माओं के लिए आशा और आलोक का प्रतीक बनने वाला था। माता श्रीमती वीणा जी और पिता श्री राजेश जी जैन के आँगन में जन्मे इस शिशु का नाम रखा गया – सन्मति। यह नाम केवल संयोग नहीं था, बल्कि शुभ विचार, सद्बुद्धि और उज्ज्वल भविष्य का प्रतीक था। जन्म से ही आपके व्यक्तित्व में शांति, सरलता और आध्यात्मिक आभा झलकती थी। परिवार और समाज में लोग स्नेहपूर्वक आपको “गुरु भैया” कहकर पुकारते थे, मानो जन्म से ही आपके भीतर मार्गदर्शन और नेतृत्व का तेज समाहित था।

अल्पायु से ही आपके भीतर कर्मनिष्ठा और ज़िम्मेदारी का भाव प्रकट हुआ। मात्र १२ वर्ष की आयु में आपने अपने पिता के व्यवसाय में हाथ बँटाना शुरू कर दिया, जहाँ अन्य बालक खेलों में लीन रहते थे। शिक्षा में भी आप सदैव अग्रणी रहे—२००६ में BBA और २००८ में MBA (Gold Medalist) की उपाधि प्राप्त कर लौकिक ज्ञान की यात्रा के शिखर को छुआ। परंतु यह तो केवल आरंभ था, क्योंकि नियति ने आपके लिए व्यापार और लौकिक सफलता से कहीं ऊपर एक विशिष्ट और आध्यात्मिक पथ का चयन किया था।

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वैराग्य की यात्रा

व्यापार और शिक्षा की दुनिया में सफलता प्राप्त करने के बावजूद, सन्मति का मन शांति की तलाश में भटकता रहा। भीतर कहीं एक आवाज़ थी जो उन्हें लौकिक भोग-विलास से दूर ले जाने और आत्मा की ओर मोड़ने का आह्वान करती थी। वर्ष २००८ इस यात्रा का निर्णायक मोड़ बना। जब उन्हें आचार्य श्री विशुद्धसागर जी महाराज के सान्निध्य का सौभाग्य मिला, तब उनके हृदय में वैराग्य का बीज अंकुरित हुआ। आचार्य श्री के उपदेश और तपस्या ने उनके भीतर वह ज्वाला जलाई जिसने जीवन की पूरी दिशा बदल दी।

उस क्षण से सन्मति ने समझ लिया कि जीवन का वास्तविक उद्देश्य केवल व्यवसायिक सफलता या सामाजिक मान-सम्मान नहीं है, बल्कि आत्मकल्याण और धर्मप्रभावना है। धीरे-धीरे उनका झुकाव साधना और तपस्या की ओर बढ़ता गया। बाल्यकाल का गुरु भैया अब साधुता के पथ पर चलने को आतुर था।

अल्पायु से ही आपके भीतर कर्मनिष्ठा और ज़िम्मेदारी का भाव प्रकट हुआ। मात्र १२ वर्ष की आयु में आपने अपने पिता के व्यवसाय में हाथ बँटाना शुरू कर दिया, जहाँ अन्य बालक खेलों में लीन रहते थे। शिक्षा में भी आप सदैव अग्रणी रहे—२००६ में BBA और २००८ में MBA (Gold Medalist) की उपाधि प्राप्त कर लौकिक ज्ञान की यात्रा के शिखर को छुआ। परंतु यह तो केवल आरंभ था, क्योंकि नियति ने आपके लिए व्यापार और लौकिक सफलता से कहीं ऊपर एक विशिष्ट और आध्यात्मिक पथ का चयन किया था।

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ज्ञान और भाषाओं में निपुणता

मुनिश्री का व्यक्तित्व केवल साधना तक सीमित नहीं रहा, बल्कि उन्होंने ज्ञान के क्षेत्र में भी असाधारण उपलब्धियाँ हासिल कीं। मात्र २१ दिनों में प्राकृत भाषा का अध्ययन पूर्ण कर उन्होंने अपनी अद्भुत मेधा का परिचय दिया। इसके बाद संस्कृत, अपभ्रंश, द्रविड़ीयन भाषाएँ, पुरानी कन्नड़, नई कन्नड़ और तमिल जैसी १६ से अधिक लिपियों में प्रवीणता प्राप्त की। यह उपलब्धि उन्हें केवल एक जैन संत ही नहीं, बल्कि एक अद्वितीय भाषाशास्त्री भी बनाती है।

२०१८ से २०२४ तक बेंगलुरु, सागर, इंदौर, भीलवाड़ा और कोटा जैसे नगरों में उन्होंने चातुर्मास किए और जिनशासन की अभूतपूर्व प्रभावना की। हर प्रवचन में वे कठिन से कठिन विषयों को भी सरल, सुगम और प्रेरणादायी ढंग से प्रस्तुत करते हैं। यही कारण है कि जैन समाज ही नहीं, बल्कि जैनेतर समुदाय भी उनके प्रवचनों से गहराई से जुड़ता है।

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साहित्य और संरक्षण

मुनिश्री केवल ज्ञान के उपासक नहीं, बल्कि साहित्य और श्रुत संरक्षण के प्रबल साधक भी हैं। अब तक आप ५०,००० से अधिक श्लोकों की रचना कर चुके हैं। ४५ प्राकृत, २० संस्कृत और १२० से अधिक हिंदी कृतियों के साथ-साथ २५ से अधिक ग्रंथों का संपादन आपके श्रीचरणों से हुआ है।

प्राचीन श्रुत की रक्षा के लिए आपने ताड़पत्र और ताम्रपत्र के संरक्षण की अभूतपूर्व क्रांति की शुरुआत की। अब तक १००० से अधिक प्राचीन शास्त्रों का संरक्षण आपके नेतृत्व में संपन्न हुआ है। यह कार्य केवल जैन धर्म ही नहीं, बल्कि भारतीय संस्कृति की अमूल्य धरोहर को आने वाली पीढ़ियों तक पहुँचाने का संकल्प है।

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समाज और युवा वर्ग पर प्रभाव

आज के युग में जहाँ युवा भटकाव और तनाव से जूझ रहे हैं, वहाँ मुनिश्री आदित्यसागर जी उनके लिए प्रकाशपुंज बनकर खड़े हैं। आपके प्रवचन केवल ग्रंथों का वाचन नहीं, बल्कि जीवन की व्यावहारिक परिस्थितियों का समाधान भी हैं। “आध्यात्मिक प्रबंधन”, “नीति कक्षा” और “सही बातें” जैसी पहल ने विशेष रूप से युवा वर्ग को जीवन का नया दृष्टिकोण दिया है।

आपने निर्भीकता से कुरीतियों और विकृतियों का विरोध किया और समाज में नई चेतना जगाई। आपके शब्दों में ऐसी ऊर्जा है जो हृदय को झकझोर देती है और आत्मा को जागृत कर देती है। यही कारण है कि आप आज सोशल मीडिया पर भी सबसे अधिक सुने और पढ़े जाने वाले जैन संतों में गिने जाते हैं।

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प्रेरणादायी महामंत्र और जीवन संदेश

पूज्य मुनिश्री आदित्यसागर जी ने अपने गुरुभक्तों और समाज को ऐसे अनमोल महामंत्र प्रदान किए हैं, जो जीवन को सकारात्मकता से भरने और नकारात्मकताओं को दूर करने का अद्वितीय साधन बन चुके हैं –

“ॐ इग्नोराय नमः” | “ॐ डिलीटाय नमः”

ये महामंत्र केवल शब्द नहीं, बल्कि जीवन जीने की कला हैं। इनसे यह शिक्षा मिलती है कि नकारात्मक विचारों और परिस्थितियों को अनदेखा करना और उन्हें मिटा देना ही आत्मिक शांति और सच्ची प्रसन्नता का मार्ग है।

इसी तरह मुनिश्री का संदेश –
“आपका I Can आपके IQ से बड़ा होना चाहिए।”
हर व्यक्ति को यह प्रेरणा देता है कि आत्मविश्वास और कर्मनिष्ठा, केवल बुद्धि से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं।

और उनके जीवन का मूल सूत्र है –
“नित्यम् आदित्यम् आनन्दम्” – अर्थात् हर क्षण सकारात्मकता, ऊर्जा और आनंद से परिपूर्ण रहना।

यह सूत्र आज असंख्य जीवनों को दिशा और साहस प्रदान कर रहा है।

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संघ और साधना

एक साधु का प्रभाव केवल उसके व्यक्तिगत तप और साधना तक सीमित नहीं होता, बल्कि उसके साथ चलने वाले संघ से और भी प्रखर एवं व्यापक बन जाता है। पूज्य श्रुतसंवेगी महाश्रमण श्री १०८ आदित्यसागर जी मुनिराज का संघ भी इसी सत्य का जीवंत उदाहरण है। आपके साथ तीन और तेजस्वी संत निरंतर साधना और धर्मप्रभावना में संलग्न होकर इस आभा को चार गुना बढ़ा रहे हैं।

🔹 श्रुतप्रिय श्रमणरत्न श्री १०८ अप्रमितसागर जी

अप्रमितसागर जी अपने नाम के अनुरूप “अप्रमित” विद्या और श्रुत के धनी हैं। आपने जैन आगमों और प्राकृत साहित्य में गहन अध्ययन किया है और अपने संयम, विनम्रता एवं गहरी चिंतनशीलता के कारण समाज में अत्यंत प्रिय हैं। आपके प्रवचन सरल भाषा में होते हैं, जिससे साधारण गृहस्थ भी धर्म के गूढ़ सिद्धांतों को सहज समझ सकता है।

🔹 सहजानंदी श्रमणरत्न श्री १०८ सहजसागर जी

सहजसागर जी का जीवन “सहजता और आनंद” का प्रतीक है। आपके भीतर तप और त्याग के साथ-साथ एक ऐसा सरल भाव है, जो हर शिष्य और भक्त को सहज आकर्षित करता है। आप जिनशासन की प्रभावना और युवाओं को साधना-पथ पर प्रेरित करने में विशेष योगदान दे रहे हैं। आपके प्रवचन जीवन को व्यावहारिक दृष्टि से देखने की कला सिखाते हैं।

🔹 क्षुल्लक श्री १०५ श्रेयस्सागर जी

श्रेयस्सागर जी महाराज का जीवन उन सभी के लिए अद्वितीय प्रेरणा है, जिन्होंने यह सोचा है कि साधुता केवल युवावस्था या ब्रह्मचर्य काल से ही संभव है। आपने गृहस्थ जीवन व्यतीत करने के बाद भी वैराग्य को अपनाया और जिनशासन की सेवा में स्वयं को समर्पित किया। यह निर्णय केवल त्याग ही नहीं, बल्कि अदम्य साहस और गहन श्रद्धा का प्रतीक है।

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