मुनि आदित्य सागर जी महाराज इस प्रवचन में झूठी तारीफ से बचने की नसीहत देते हैं। वे कहते हैं कि झूठी प्रशंसा हमारे व्यक्तित्व के निर्माण का अंत करती है।थोड़ी सी भी झूठी तारीफ मिलते ही हम फूले नहीं समाते और खुद को भूल जाते हैं, जैसे गुब्बारा हवा भरते ही फुल जाता है पर उसका अंत जल्दी होता है।
सच्ची प्रशंसा अच्छी है, लेकिन झूठी तारीफ हमें भ्रमित कर देती है और हमारी असली क्षमताओं से दूर ले जाती है।
वे उदाहरण देते हैं कि मुनिराज मृदुमति के साथ भी झूठी तारीफ का असर क्या होता है; प्रशंसा में फंस कर वह अभिमानी और अलग हो गए, परिणामस्वरूप उनका पतन हो गया।इसलिए शासन है कि प्रशंसा सुनते समय सोचें कि क्या वह गुण आपके अंदर वाकई हैं? अगर नहीं तो उस तारीफ को अपनाने या विश्वास करने की आवश्यकता नहीं है।
झूठी तारीफ करने वाले आमतौर पर आपके मित्र नहीं, बल्कि आपके शत्रु होते हैं जो आपको बलि का बकरा बनाने का प्रयास करते हैं।वे अक्सर आपकी कमियां छिपा कर सिर्फ खूबियां गिनाते हैं ताकि आप उनके प्रभाव में आ जाएं और बाद में धोखा खाएं।
मुनि जी कहते हैं कि जब भी कोई झूठी तारीफ करे, एक मिनट के लिए अपना सांस नियंत्रित करें और समझें कि वह व्यक्ति आपके लिए अच्छा नहीं है।झूठी तारीफ का प्रयोग काम निकालने के लिए भी किया जाता है; जो लोग इसे पसंद करते हैं वे आमतौर पर अभिमानी होते हैं।
सच्चा मित्र वही है जो आपकी प्रशंसा भी करे और कमी भी बताए; जो सिर्फ झूठी तारीफ करें उनका प्रभाव छोड़ देना चाहिए।
राजाओं के समय भी वह बंदीजन रखा जाता था जो हमेशा राजा की प्रशंसा करते रहे, जिससे राजा अहंकारी होता गया और अंततः हार गया।
निति यह सिखाती है कि आत्मरक्षा के लिए झूठी प्रशंसा से बचना आवश्यक है। हमें ऐसे कार्य करने चाहिए जिससे लोग सच्ची तारीफ करें, न कि झूठी।अंत में वे भक्तों को प्रेरित करते हैं कि सच्चे गुणों को पहचानें और उसे बढ़ाने का प्रयास करें, क्योंकि यही जीवन में सच्ची सफलता का मार्ग है।